आज अपना हो न हो पर ,कल हमारा आएगा

आज अपना हो न हो पर ,कल हमारा आएगा
रौशनी ही रौशनी होगी, ये तम छंट जाएगा


आज केवल आज अपने दर्द पी लें
हम घुटन में आज जैसे भी हो ,जी लें
कल स्वयं ही बेबसी की आंधियां रुकने लगेंगी
उलझने ख़ुद पास आकर पांव में झुकने लगेंगी
देखना अपना सितारा जब बुलंदी पायेगा
रौशनी के वास्ते हमको पुकारा जाएगा

आज अपना हो न हो पर कल हमारा आएगा ............

जनकवि स्व .विपिन 'मणि '

Wednesday, December 31, 2008

सभी मित्रो व् साथियों को नव वर्ष की अनन्य शुभकामनाएं

सभी साथियों

एवं समस्त मित्रों

को

नव - वर्ष की

अनन्य शुभकामनाएं

" जहां पर भी अंधेरा हो , खुशी के दीप जल जायें
दुखों की बर्फ़ के सारे , जमे पर्वत पिघल जायें
भरा हो हर्ष से नव-वर्ष का, हर दिन हर इक लम्हा
सभी की आंख के सपने , हकीकत मे बदल जायें "

डा. उदय ’ मणि ’ कौशिक
एवं
परिवार

Thursday, December 4, 2008

घरों मे बात करने से , ये मसले हल नही होंगे "

" पडेगा हम सभी को अब , खुले मैदान मे आना
घरों मे बात करने से , ये मसले हल नही होंगे
"

डा. उदय ’मणि ’

खून से लथपथ न हों अखबार तो...

खून से लथपथ न हों अखबार तो...


मौत की खबरें न हों दो चार तो
ना दिखें चलते हुये हथियार तो
पढ के लगते ही नहीं के पढ लिये
खून से लथपथ न हों अखबार तो


डा. उदय मणि

Wednesday, December 3, 2008

राजधानी चुप रही ..

किसलिए सारे जावानों की जवानी चुप रही
क्यों हमारी वीरता की हर कहानी चुप रही
आ गया है वक्त पूछा जाय आख़िर किसलिए
लोग चीखे , देश रोया , राजधानी चुप रही

डॉ . उदय 'मणि '

Tuesday, December 2, 2008

एक मुक्तक .. ( मुंबई के घटना क्रम पे )

हर दिल मे हर नज़र मे , तबाही मचा गये
हँसते हुए शहर में , तबाही मचा गए
हम सब तमाशबीन बने देखते रहे
बाहर के लोग घर में , तबाही मचा गए

हमने तुमको दिल्ली दी थी ,हमको दिल्ली वापस दो

सारा बचपन ,खेल खिलौने , चिल्ला-चिल्ली वापस दो
छोडो तुम मैदान हमारा , डन्डा - गिल्ली वापस दो
ऐसी - वैसी चीजें देकर ,अब हमको बहलाओ मत
हमने तुमको दिल्ली दी थी ,हमको दिल्ली वापस दो

डा. उदय ’मणि’

Friday, November 28, 2008

मुक्तक


छुपाओ मत जमाने को सुलगते बाग़ दिखने दो
दिलों में आग है तो फ़िर दिलों की आग दिखने दो
हकीकत अब सभी की सामने आनी जरूरी है
कहाँ बेदाग है दामन कहाँ पे दाग दिखने दो

Sunday, November 16, 2008

हम साफ़ देखते हैं .... ( ग़ज़ल)

जागीर मत समझना , तुम भूलकर शहर को
हम साफ़ देखते हैं , बदलाव की लहर को

नाजुक बना लिए हैं , हम सब ने पाँव अपने
बेकार कोसते हैं , हम लोग दोपहर को

किसने कहा हवा में , बेहद जहर मिला है
बरसों से खा रहे हैं , हम लोग इस जहर को

ये हुक्म हो चुका है, तुम ख़ुद चुनाव कर लो
या रख सकोगे धड को , या रख सकोगे सर को

उसके ही चूमती है , ख़ुद पाँव कामयाबी
जिसने मिटा दिया है , नाकामियों के डर को

ये सोच कर सभी को हँसना सिखा रहा था
कुछ दिन तो याद रक्खे , दुनिया मेरे असर को

डॉ उदय ' मणि '

Wednesday, November 5, 2008

दो- मुक्तक

सभी के सामने दलदल को, जो दलदल बताता है
जमाना आजकल उसको, बड़ा पागल बताता है
किसी की याद ने काफ़ी , रुलाया है तुम्हें शायद
तुम्हारी आँख का फैला , हुआ काजल बताता है

एवं
नहीं है चीज़ रखने की ,जो बच्चे साथ रखते हैं
खिलौनो के दिनो मे बम , तमन्चे साथ रखते हैं
कहीं बचपन न खो जाए हमारा इसलिए हम तो
अभी तक जेब मे दो चार ' कन्चे ' साथ रखते हैं
डॉ। उदय ' मणि '

कुछ मुक्तक .... दीपावली पर

कुछ मुक्तक .... दीपावली पर लिखने मे आए
( इस बार दीपावली से कुछ ही दिनो पहले , बिहार , उड़ीसा , और बल्कि पूरे पूर्वोत्तर मे भयंकर बाढ़ का प्रकोप रहा , तो मान मे आया, कि )

" दें रत जगमगाती , और खुशनुमा सहर दें
हम उनकी झोलियों मे , खुशियाँ तमाम भर दें
जिनके घरों का सब कुछ सैलाब ले गया है
इस बार की दिवाली ,सब उनके नाम कर दें "

और आज के जिस तरह के हालात है , उनके चलते दिवाली पर एक मुक्तक

" कैसे रखेगा दीपक , कोई कहीं जलाके
कैसे चलाएगा अब , कोई कहीं पटाखे
हर आँख रो रही है , हर दिल सुबक रहा है
इस बार की दिवाली , को खा गये धमाके "

एक मुक्तक प्रार्थना का ...

" जो खो चुकी है वापस , पहचान चाहते हैं
हम हर कहीं पे फिर , से मुस्कान चाहते हैं
वो प्यार, भाई- चारा , भर दे यहाँ दुबारा
बस एक चीज़ तुझसे, भगवान चाहते हैं "

डॉ । उदय ' मणि '
094142 60806
http://mainsamayhun.blogspot.com/

Tuesday, November 4, 2008

सभी साथियों को दीपावली की असीम शुभकामनाओं के साथ ...

" धरा पर अंधेरा कहीं रह न जाए "

हर-इक फूल पत्ता कली खिलखिलाए
हवा प्यार के गीत से गुनगुनाए
नहा जाए हर इक जगह रोशनी से
धरा पर अंधेरा कहीं रह न जाए ..

चेहरा सभी का दिखे मुस्कुराता
हर दिल खुशी के तराने सुनाता
कहीं पर ज़रा भी नहीं हो उदासी
कोई आँख दुख से नहीं छलछलाए
धरा पर अंधेरा कहीं रह न जाए ..

झुके जिसके कारण नज़र ये शरम से
न ऐसा कोई काम हो जाए हम से
कोई बात ऐसी न निकले ज़ुबाँ से
ज़रा सा भी जो दिल किसी का दुखाए
धरा पर अंधेरा कहीं रह न जाए ..


ग़रीबी न सपने सभी चूर कर दे
न महंगाई मरने पे मजबूर कर दे
न फिरकापरस्ती न नफ़रत की ज्वाला
न बेरोज़गारी कहीं सर उठाए
धरा पर अंधेरा कहीं रह न जाए ..
डॉ. उदय 'मणि'
http:mainsamayhun.blogspot.com

Thursday, October 23, 2008

एक मुक्तक ... आज के दुखद हालात पे संवेदनाओं सहित

सफर में जा रहे हो तो , किसी से बात मत करना
कसम है दोस्ती हरगिज़ ,किसी के साथ मत करना
मैं जब बहार निकलता हूँ , मेरी माँ रोज कहती है
समय से लौट आना तुम , ज़्यादा रात मत करना
डॉ उदय ' मणि '

Saturday, August 30, 2008

फ़र्ज़ से की है मुहब्बत ...

फ़र्ज़ से की है मुहब्बत , फायदा हो या नहीं
फ़र्ज़ की खातिर कभी मैं , चैन से सोया नहीं

थी शिकस्ताँ हाल कश्ती , आंधियां थी पुरखतर
मैं ही था चलता रहा जो , हौसला खोया नहीं

मौजे दरिया मुख्तलिफ थी हर तरफ़ गिरदाब थे
मौत बिल्कुल रूबरू थी , फ़िर भी मैं रोया नहीं

हूँ सुखनवर बर्क़ से भी तेज है कुछ चल मेरी
जिंदगी का कोई लम्हा , बैठ कर खोया नहीं

है बहुत उनको तमन्ना उनको तुख्मे गुल मिले
केक्टस बोए जिन्होंने , तुख्मे गुल बोया नहीं

होके सूरज जुल्मतों का साथ दूँ मुमकिन नहीं
रौशनी ही बाँटता हूँ , तुम इसे लो या नहीं

चाहता था टालना फ़िर भी मगर आ ही गया
मेरे सर वो फर्ज भी , जो आपने ढोया नहीं

बात सच मने मेरी कोई ग़ज़ल गोया नहीं
शेख जी पी भी गए और , जाम तक धोया नहीं

खूब है दिल 'विपिन' का हौसला भी आफरीन
नागफनियों से ही खुश है , गुल इसे दो या नहीं

जनकवि स्व. विपिन ‘ मणि ‘

Thursday, August 28, 2008

हवाओं का असर ऐसे चिरागों पर नहीं होता ...



किसी तूफ़ान का जिनके जहन में डर नहीं होता
हवाओं का असर ऐसे चिरागों पर नहीं होता

समय रहते सियासत की शरारत जान ली वरना
किसी का धड नहीं होता किसी का सर नहीं होता

अगर जी - जान से कोशिश करोगे तो मिलेगी ये
सफलता के लिए ताबीज़ या मंतर नहीं होता

किसी की बात को कोई यहाँ तब तक नहीं सुनता
किसी के हाथ में जब तक बड़ा पत्थर नहीं होता

डॉ उदय 'मणि' कौशिक

Friday, August 15, 2008

प्रिय " दीप " को रक्षा - बंधन पर " हम सब " की ओर से , असीम स्नेह के साथ ...



और कुछ है भी नहीं देना हमारे हाथ में
दे रहे हैं हम तुम्हें ये "हौसला " सौगात में

हौसला है ये इसे तुम उम्र भर खोना नहीं
है तुम्हें सौगंध आगे से कभी रोना नहीं
मत समझना तुम इसे तौहफा कोई नाचीज है
रात को जो दिन बना दे हौसला वो चीज है

जब अकेलापन सताए ,यार है ये हौसला
जिंदगी की जंग का हथियार है ये हौसला
हौसला ही तो जिताता ,हारते इंसान को
हौसला ही रोकता है दर्द के तूफ़ान को

हौसले से ही लहर पर वार करती कश्तियाँ
हौसले से ही समंदर पार करती कश्तियाँ
हौसले से भर सकोगे जिंदगी में रंग फ़िर
हौसले से जीत लोगे जिंदगी की जंग फ़िर

तुम कभी मायूस मत होना किसी हालात् में
हम चलेंगे ' आखिरी दम तक ' तुम्हारे साथ में

है अँधेरा आज थोड़ा सा अगर तो क्या हुआ
आ गयी कुछ देर को मुश्किल डगर तो क्या हुआ
दर्द के बादल जरा सी देर में छँट जायेंगे
कल तुम्हारी राह के पत्थर सभी हट जायेंगे

चाहते हो जो तुम्हें सब कुछ मिलेगा देखना
हर कली हर फूल कल फ़िर से खिलेगा देखना
फ़िर महकने - मुस्कुराने सी लगेगी जिंदगी
फ़िर खुशी के गीत गाने सी लगेगी जिंदगी

घोर तम हर हाल में हरना तुम्हारा काम है
"दीप "हो तुम रौशनी करना तुम्हारा काम है
पीर की काली निशा है आख़िरी से दौर में
अब समय ज्यादा नहीं है जगमगाती भोर में

देख लो नजरें उठाकर ,साफ दिखती है सुबह
देख लो अब जान कितनी सी बची है रात में

तुम कभी मायूस मत होना किसी हालात् में
हम चलेंगे ' आखिरी दम तक ' तुम्हारे साथ में


डॉ उदय 'मणि' कौशिक
23 जून 2008

Friday, August 8, 2008

मैं समय हूँ.. (जनकवि स्व विपिन 'मणि' की प्रतिनिधि कविता )

मैं समय हूँ कह रहा हूँ आँख खोलो
पग उठाओ और मेरे साथ हो लो


आज धरती पर तुम्हारी भूख के पौधे उगे हैं
लालची बादल अनेकों पर्वतों पे आ झुके हैं
आदमी की आँख मैं अब झांकती हैं नागफनियाँ
झर गयी निष्प्राण होकर देह की मासूम कलियाँ
कागजों से भर गयी है बरगदों की हर तिजोरी
घूमती काजल लगा कर आँख में महंगाई गोरी
मैं गगन से झांकता हूँ देख लो पलकें उठाकर

तोड़ दूँगा दर्प सबका एक दिन बिजली गिराकर


दुर्बलों की पीर से आँखें भिगोलो
मैं समय हूँ ,कह रहा आँख खोलो ....


चांदनी को दर्प था आकाश पर छाई हुई थी
झील के खामोश तट को नींद सी आयी हुई थी
फूल सब महके हुए थे क्यारियाँ चहकी हुई थी
शुक - पपीहा के स्वरों से डालियाँ बहकी हुई थी
धूल की लपटें लिए फ़िर एक दिन तूफ़ान आया
मौत का चेहरा भयानक त्रासदी को साथ लाया
पड़ गयी किरचें अनेकों साफ़ सुथरे दर्पणों पर
नाम मेरा ही लिखा था धुप से झुलसे वनों पर


मैल धोखे का ह्रदय से आज धोलो
मैं समय हूँ कह रहा हूँ आँख खोलो ...


वृक्ष के पत्ते हरे थे आज सब पीले हुए हैं
फूल थे सारे गुलाबी आज सब नीले हुए हैं
मैं समय हूँ देख लो तुम आज ये मेरा तमाशा
फ़ैल जायेगा अभी आकाश में कला धुआं सा
सोचता हूँ तुम घुटन में साँस कैसे ले सकोगे
कांपते हैं पांव मेरा साथ कैसे दे सकोगे
मील के पत्थर अनेकों देखते हैं राह मेरी


है अभी पुरुषार्थ तुममें ,थाम लो तुम बांह मेरी
साहसी हो , वीरता के शब्द बोलो


मैं समय हूँ ,कह रहा हूँ आँख खोलो
पग उठाओ और मेरे साथ हो लो
जनकवि स्व श्री विपिन 'मणि' '

Wednesday, August 6, 2008

Tuesday, August 5, 2008

किसी रोते हुए दिल को हँसाने का हुनर दे दे ...

यहाँ के हर मुसाफिर को , मुहब्बत की डगर दे दे
अगर तू दे सके मेरी , दुआओं में असर दे दे
कभी इसके सिवा तुझसे न कोई चीज मांगेंगे
किसी रोते हुए दिल को हँसाने का हुनर दे दे

Monday, August 4, 2008

मुक्तक ...

हर सिम्त लूट -मार ,गबन देख रहा हूँ
माथे पे हिमालय के शिकन देख रहा हूँ
जम्हूरियत का दौर है क्या कह रहे है आप
मैं गोलियों के खूब चलन देख रहा हूँ .....

Sunday, August 3, 2008

कालजयी सृजन के पुरोधा एवं वरिष्ठ जनकवि 'बृजेन्द्र कौशिक जी 'को जन्मदिन पर ....सादर काव्यांजलि

कर रहे हैं आज प्रेषित सब ह्रदय की भावना
दे रहे हैं आज सारे आपको शुभकामना

पूछिए मत किस कदर महकी हुई सी है हवा
है नशे में चूर सी , बहकी हुई सी है हवा
बादलों में इस तरह का दम कभी देखा न था
मुद्दतों से आज सा मौसम कभी देखा न था
लग रहा है आज जैसे हो कोई त्यौहार सा
दे रहे हों मेघ धरती को कोई उपहार सा

हाथ सब अपने उठाकर , सर झुकाकर आज सब
कर रहें हैं आपकी , लम्बी उमर की प्रार्थना ॥

आपके सब गीत - कविता हैं उजाले की किरण
आपके सब शब्द लाते हैं , अनूठा जागरण
आपके अक्षर सभी जलती मशालों की तरह
रौशनी इनकी वजह से है यहाँ पर सब जगह
जगमगाते हैं सितारे आपके विशवास पर
आप सूरज की तरह हो ,शब्द के आकाश पर

आप जैसा शब्द का साधक नहीं है दूसरा
है असंभव आप जैसी , शारदे की साधना

कर रहे हैं आज प्रेषित सब ह्रदय की भावना
दे रहे हैं आज सारे आपको शुभकामना

Saturday, August 2, 2008

Sunday, July 27, 2008

एक और आव्हान ...


देख लो नजरें उठाकर हर तरफ़
हो रही हैं साजिशें अलगाव की
गीत - ग़ज़लों के विषय बदलो जरा
अब जरूरत है बहुत बदलाव की ...
डॉ उदय 'मणि' कौशिक

Friday, July 25, 2008

आव्हान ...( आज के बम - धमाकों के जवाब में )

इस धरा पर दोस्तों , फ़िर गिद्ध मंडराने लगे
मौत का समान फ़िर जुटने लगा , कुछ कीजिये .....

एक मुक्तक ...(आज के बम -धमाकों के जवाब में )

इन होठों से बात हमेशा , असल प्यार की निकलेगी
इस दिल से जब भी निकलेगी ग़ज़ल प्यार की निकलेगी
चाहे जितनी नफरत डालो कितना भी बारूद भरो
इस मिट्टी से जब निकलेगी फसल प्यार की निकलेगी
डॉ उदय 'मणि'कौशिक

Thursday, July 24, 2008

मुक्तक ...

मौसमों का डर नहीं है अब ज़रा भी
अब नहीं हैं हम कोई बेजान तिनके
वक्त ने चेहरा बदलकर रख दिया है
बन चुके हैं वृक्ष अब पौधे 'विपिन' के
डॉ उदय 'मणि'कौशिक

चुटकुलों से अगर जंग हारी ग़ज़ल ...

एक है रौशनी की पुजारी ग़ज़ल
दूसरी है अंधेरों की मारी ग़ज़ल
हो समझदार तो फर्क ख़ुद देख लो
वो तुम्हारी ग़ज़ल ,ये हमारी ग़ज़ल

इसका हँसना -हंसाना कहाँ गुम गया
इसके चेहरे की रंगत कहाँ खो गयी
बोलिए तो सही क्या हुआ किसलिए
मुस्कुराती नहीं अब तुम्हारी ग़ज़ल

जल्दबाजी हुई आपसे , आपने
वो सफा ठीक तरहा से देखा नहीं
नाम मेरा लिखा था उसी पृष्ठ पर
आपने जिस जगह से उतारी ग़ज़ल

शर्म की बात होगी हमारे लिए
गीत-कविता का मस्तक अगर झुक गया
शर्म की बात होगी हमारे लिए
चुटकुलों से अगर जंग हारी ग़ज़ल

डॉ उदय 'मणि'कौशिक

मुक्तक ....

हमें बहती हवा के साथ में बहना नहीं आता
किसी पे जुल्म होता देख चुप रहना नहीं आता
हमेशा साफ़ कहते है , हमारी खासियत है ये
हमें ज्यादा घुमाकर बात को कहना नहीं आता ...

डॉ उदय 'मणि' कौशिक

Wednesday, July 23, 2008

जमी है बर्फ बरसों से ... ( ग़ज़ल )

जमी है बर्फ बरसों से , ज़रा सी तो पिघल जाए
दुआएं कीजिये कुछ देर को सूरज निकल जाए

किसी के खौफ से कोई ,यहाँ कुछ कह नहीं पाता
मगर सब चाहते तो हैं ,कि ये मौसम बदल जाए

करो श्रृंगार धरती का , इसे इतना हरा कर दो
तबीयत बादलों की आप ही इसपे मचल जाए

अँधेरा रह नहीं सकता ,किसी भी हाल में बिल्कुल
अगर सबकी निगाहों में , सुबह का ख्वाब पल जाए

बहुत ग़मगीन है माहौल ,कुछ ऐसा करो जिस से
तुम्हारा दिल बहल जाए ,हमारा दिल बहल जाए
डॉ उदय 'मणि' कौशिक

जानते हैं हम ....( ग़ज़ल )

हमारा फन अभी तक भी, पुराना जानते हैं हम
जमाने दोस्ती करके , निभाना जानते हैं हम


किसी भूचाल से इनमे , दरारें पड़ नहीं सकती
अभी तक इस तरह के घर, बनाना जानते हैं
हम

उठा पर्वत उठाये जा , हमें क्या फर्क पड़ता है
इशारों से पहाडों को , गिराना जानते हैं हम


हमारी बस्तियों में तुम , अँधेरा कर न पाओगे
मशालें खून से अपने जलाना , जानते हैं हम


बरसती आग से हमको , जरा भी डर नहीं लगता
कड़कती धूप में बोझा , उठाना जानते हैं हम


हवाएं तेज हैं तो क्या , हमारा क्या बिगाडेंगी
पतंगें आँधियों में भी , उडाना जानते हैं हम


जरूरत ही नहीं पड़ती , हमें मन्दिर में जाने की
अगर मरते परिंदे को , बचाना जानते हैं हम ........


डॉ उदय 'मणि'कौशिक

आपकी सक्रिय प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा में ...
डॉ उदय 'मणि'कौशिक
094142- 60806
684 महावीर नगर II
umkaushik@gmail.com
udaymanikaushik@yahoo.co.in

Tuesday, July 22, 2008

पूजनीय पिताजी (जनकवि स्व. विपिन 'मणि) की पुण्य स्मृति मे


उठा कर हाथ हर कोई यही फरियाद करता है
दुबारा भेज उसको जो चमन आबाद करता है
ज़माने के लिए तुमने लगा दी जान की बाजी
तभी तो आज तक तुमको जमाना याद करता है ....


हमेशा वक्त को अपने इशारों पर नचाया था
लगा आवाज शब्दों से ज़माने को जगाया था
हवाओं-आँधियों ,तूफ़ान में चलते रहे हरदम
न जाने आपको चलना भला किसने सिखाया था ....


यहाँ पे मौसमों का आज वो उत्पात थोडी है
यहाँ पे आजकल उतनी कठिन बरसात थोडी है
किसी का दम नहीं है जो मुकाबिल चाल को रक्खे
'समय' के नाम से जीना हँसी की बात थोडी है ....


बगावत जब जरूरी हो ,नहीं डरना बगावत से
समय का सामना करना बहुत पुरजोर ताकत से
हमेशा फर्ज को तुमने उसूलों सा निभाया था
तभी तो वक्त लेता है तुम्हारा नाम इज्जत से.....

डॉ उदय 'मणि'कौशिक

जनकवि स्व . श्री विपिन 'मणि' ...........संक्षिप्त जीवन परिचय

प्रवास
: 12 दिसम्बर 1948 से 23 अगस्त 2002
शिक्षा
: उच्च माध्यमिक स्कूली शिक्षा
कार्यक्षेत्र
:उत्पादन के क्षेत्र में 35 वर्ष उल्लेखनीय दक्षता से कार्य करने के पश्चात् , शिफ्ट इंजिनियर - अ के उच्च तकनीकी पद से स्वैच्छिक सेवानिवृति्
:साहित्यिक एवं सांस्कृतिक सृजनशीलता के बहुआयामी उन्नयन की गतिविधियाँ
:जनवादी साहित्यिक अभियान के अग्रणी पुरोधा
:एक दशक तक जनवादी लेखक संघ के जिलाध्यक्ष एवं जलेस प्रकाशन तथा सहयोगी प्रकाशन योजना के संस्थापक सदस्य
रहे
अभिरुचियाँ
: रंगमंच के बेजोड़ कलाकार
:कबड्डी के स्टेट प्लेयर
:साहित्यिक - सांस्कृतिक प्रतियोगितओं में मानक पुरुस्कार विजेता रहे
:पीडितों की मदद के लिए हर प्रकार से जोखिम उठाना
:मंचों के लोकप्रिय , लाडले , एवं ओजस्वी कवि

मुक्तक...

समंदर पार करने का जिगर इतना नहीं होता
हवाओं आँधियों से मैं निडर इतना नहीं होता
तुम्हारे साथ के दम पे यहाँ तक आ गया वरना
किसी भी हाल में मुझसे सफर इतना नहीं होता
डॉ उदय 'मणि'कौशिक

मुक्तक .......

हमारी कोशिशें हैं इस, अंधेरे को मिटाने की
हमारी कोशिशें हैं इस, धरा को जगमगाने की
हमारी आँख ने काफी, बड़ा सा ख्वाब देखा है
हमारी कोशिशें हैं इक, नया सूरज उगाने की ..........


डॉ उदय 'मणि' कौशिक

Monday, July 21, 2008

इस धरा की गोद में ..........

इस धरा की गोद में नभ के सितारे भर सकें
दो हमें सामर्थ्य इतना पार सागर कर सकें


ना डरें हम आँधियों से ,ना डरें तूफ़ान से
कश्तियाँ चलती रहें हरदम हमारी शान से
जो कठिन हालात में भी अनवरत जलता रहे
हर किसी के द्वार पे हम दीप ऐसा धर सकें


दो हमें सामर्थ्य इतना पर सागर कर सकें ......

हम मिटा पायें ह्रदय से हर घृणा को ,द्वेष को
हम बदल पायें जरा सा आज के परिवेश को
कर सकें हम स्नेह का संचार अन्तिम श्वास तक
जो दिखे पीड़ित -दुखित ,दुःख - दर्द उसका हर सकें


इस धारा की गोद में नभ के सितारे भर सकें
दो हमें सामर्थ्य इतना पर सागर कर सकें .....

डॉ उदय 'मणि' कौशिक

पूजनीय पिता जी (जनकवि स्व विपिन 'मणि' ) की स्मृति में ,,,




कौन कहता है हमारे , साथ में अब तुम नहीं हो
तुम यहीं हो ,तुम यहीं हो ,तुम यहीं हो ,.......


आपकी खुशबू अभी तक आ रही है हर जगह से
आपको महसूस करते हैं पुरानी ही तरह से
किस घड़ी किस पल बताओ आपको हम भूल पाते
जागते सोते हमेशा आपको हम पास पाते
जिस सहारे की बदौलत आज तक पाया किनारा
आज तक भी मिल रहा है उँगलियों का वो सहारा
साफ सुनते हैं सभी हम हर दिवस में हर निशा में

आपकी आवाज अब तक गूंजती है हर दिशा में


आप हो आकाश सबका ,आप हम सब की जमीं हो
तुम यहीं हो , तुम यहीं हो , तुम यहीं हो ,.........


गर न होते आप कैसे ये चमन गुलजार होता
किस तरह हंसती हवाएं खुशनुमा संसार होता
किस तरह खिलते यहाँ पर फूल कलियाँ मुस्कुराती
सिर्फ सन्नाटा नज़र आता जहाँ तक आँख जाती
आंसुओं की धार बहती , होठ सबके थरथराते
कोयलों के कंठ से फ़िर गीत कैसे फूट पाते
किस तरह से दीप जलते दिख रहे होते यहाँ पर
फैल जाते घोर तं के पांव सारी ही जगह पर


आप हो मुस्कान सबकी ,आप हम सबकी हँसी हो

तुम यहीं हो , तुम यहीं हो , तुम यहीं हो ,...........

आपके दम से अभी तक कंपकंपी है बरगदों में
बिजलियाँ गिरती नहीं हैं पेड़ पौधों की जदों में
दम नहीं है आँधियों का , भूलकर इस ओर आयें
दम नहीं है नागफ़णियों का जरा भी सर उठायें
आपका हर इक इशारा रुख हवा का मोड़ता है
आपका साहस रगों में खून बनकर दौड़ता है
आपकी हर सीख देखो सत्य का ध्वज बन चुकी है
आपने जो आग बोई आज सूरज बन चुकी है
आंसुओं को पोंछ देती आपकी वो खिलखिलाहट
कौन भूलेगा बताओ आपकी वो जगमगाहट
इस उजाले को हमेशा याद रक्खेगा ज़माना
मौत के बस में नहीं है रौशनी को मर पाना


आप हो सांसें हमारी , हम सभी की जिंदगी हो

तुम यहीं हो ,तुम यहीं हो , तुम यहीं हो, ...........

डॉ .उदय 'मणि 'कौशिक

Saturday, July 19, 2008

है अभी तक रौशनी मद्धम ,हमारे हाथ में ........( ग़ज़ल )


था हवा को मोड़ने , का दम हमारे हाथ में
आज तक भी है वही दम-ख़म हमारे हाथ में

इस जगह पर है अँधेरा , तुम अभी से मत कहो
है अभी तक रौशनी , मद्धम हमारे हाथ में

हम जिधर चाहें वहां पर धूप हो ,बरसात हो
आगया है इस तरह , मौसम हमारे हाथ में

हौसला है आज भी जो ,फाड़ दे आकाश को
साँस बेशक रह गयी है , कम हमारे हाथ में

मर रहे हैं आज वो कैसे 'उदय' के नाम पर
आ गए पूरी तरह हम-दम , हमारे हाथ में

आपकी सक्रिय प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में
डॉ उदय 'मणि' कौशिक

Friday, July 18, 2008

Tuesday, July 15, 2008

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मैं समय हूँ.. (जनाकवि स्व विपिन 'मणि' की प्रतिनिधि कविता )

मैं समय हूँ कह रहा हूँ आँख खोलो

पग उठाओ और मेरे साथ हो लो

आज धरती पर तुम्हारी भूख के पौधे उगे हैं

लालची बादल अनेकों पर्वतों पे आ झुके हैं

आदमी की आँख मैं अब झांकती हैं नागफनियाँ

झर गयी निष्प्राण होकर देह की मासूम कलियाँ

कागजों से भर गयी है बरगदों की हर तिजोरी

घूमती काजल लगा कर आँख में महंगाई गोरी

मैं गगन से झांकता हूँ देख लो पलकें उठाकर
तोड़ दूँगा दर्प सबका एक दिन बिजली गिराकर

दुर्बलों की पीर से आँखें भिगोलो

मैं समय हूँ ,कह रहा आँख खोलो ....

चांदनी को दर्प था आकाश पर छाई हुई थी

झील के खामोश तट को नींद सी आयी हुई थी

फूल सब महके हुए थे क्यारियाँ चहकी हुई थी

शुक - पपीहा के स्वरों से डालियाँ बहकी हुई थी

धूल की लपटें लिए फ़िर एक दिन तूफ़ान आया

मौत का चेहरा भयानक त्रासदी को साथ लाया

पड़ गयी किरचें अनेकों साफ़ सुथरे दर्पणों पर

नाम मेरा ही लिखा था धुप से झुलसे वनों पर

मैल धोखे का ह्रदय से आज धोलो

मैं समय हूँ कह रहा हूँ आँख खोलो ...

वृक्ष के पत्ते हरे थे आज सब पीले हुए हैं

फूल थे सारे गुलाबी आज सब नीले हुए हैं

मैं समय हूँ देख लो तुम आज ये मेरा तमाशा

फ़ैल जायेगा अभी आकाश में कला धुआं सा

सोचता हूँ तुम घुटन में साँस कैसे ले सकोगे

कांपते हैं पांव मेरा साथ कैसे दे सकोगे

मील के पत्थर अनेकों देखते हैं राह मेरी

है अभी पुरुषार्थ तुममें थम लो तुम बांह मेरी

साहसी हो , वीरता के शब्द बोलो

मैं समय हूँ ,कह रहा हूँ आँख खोलो

पग उठाओ और मेरे साथ हो लो

जनकवि स्व श्री विपिन 'मणि'

Monday, July 14, 2008

पूजनीय पिता जी की पुण्यस्मृति में ....



उठा कर हाथ हर कोई यही फरियाकरता है

दुबारा भेज उसको जो चमन आबाद करता है

ज़माने के लिए तुमने लगा दी जान की बाजी

तभी तो आज तक तुमको जमाना याद करता है ....


हमेशा वक्त को अपने इशारों पर नचाया था

लगा आवाज शब्दों से ज़माने को जगाया था

हवाओं-आँधियों ,तूफ़ान में चलते रहे हरदम

न जाने आपको चलना भला किसने सिखाया था ....

यहाँ पे मौसमों का आज वो उत्पात थोडी है

यहाँ पे आजकल उतनी कठिन बरसात थोडी है

किसी का दम नहीं है जो मुकाबिल चाल को रक्खे

'समय' के नाम से जीना हँसी की बात थोडी है ....

बगावत जब जरूरी हो ,नहीं डरना बगावत से

समय का सामना करना बहुत पुरजोर ताकत से

हमेशा फर्ज को तुमने उसूलों सा निभाया था

तभी तो वक्त लेता है तुम्हारा नाम इज्जत से.....

डॉ उदय 'मणि'कौशिक

चुनौती दे रहा हूँ मैं ....(ग़ज़ल ..)

अगर अल्फाज अन्दर से निकल कर आ नहीं सकते
नशा बनकर जमाने पर ,कभी वो छा नहीं सकते

बहुत डरपोक हो सचमुच ,तुम्हारा हौसला कम है
किसी भी हाल मैं तुम मंजिलों को पा नहीं सकते

उसे सबकुछ पता है , कौन कैसे याद करता है
किसी छापे -तिलक से तुम उसे बहला नहीं सकते

सुरों की भूलकर इनसे कभी उम्मीद मत करना
समंदर चीख सकते हैं ,समंदर गा नहीं सकते

चुनौती दे रहा हूँ मैं यहाँ के सूरमाओं को
जहाँ पे आ गया हूँ मैं वहां तुम आ नहीं सकते .....

डॉ उदय ' मणि' कौशिक

मुक्तक..

समंदर पार करने का जिगर इतना नहीं होता
हवाओं आँधियों से मैं निडर इतना नहीं होता
तुम्हारे साथ के दम पे यहाँ तक आ गया वरना
किसी भी हाल में मुझसे सफर इतना नहीं होता
डॉ उदय 'मणि'कौशिक





Sunday, July 13, 2008

मुक्तक ...

इन होठों से बात हमेशा असल प्यार की निकलेगी
इस दिल से जब भी निकलेगी ग़ज़ल प्यार की निकलेगी
चाहे जितनी नफरत डालो कितना भी बारूद भरो
इस मिट्टी से जब निकलेगी फसल प्यार की निकलेगी
डॉ उदय 'मणि' कौशिक

Saturday, July 12, 2008

बहुत बदलाव आएगा ...( ग़ज़ल )

न होते आज तक हम लोग भूखे और प्यासे से
बहलना छोड़ देते हम अगर झूठे दिलासे से

तमाशा कह रहे हो तो ,तमाशा ही सही लेकिन
बहुत बदलाव आएगा , हमारे इस तमाशे से

अभी हंस लो हमें छुटपुट पटाखे सा बताकर तुम
तुम्हारी धज्जियाँ उड़ जाएँगी इनके धमाके से

हमें झोंका समझते हो अभी तक आपने शायद
किले गिरते नहीं देखे , हवाओं के तमाचे से ..........

डॉ उदय 'मणि' कौशिक
94142 - 60806

Friday, July 11, 2008

मुक्तक ......

अगर जो ये परिंदा है , चहकता क्यों नहीं बोलो
अगर ये फूल है तो फ़िर महकता क्यों नहीं बोलो
हमारी ही तरह खुदको अगर इन्सान कहता है
किसी का दिल दुखाने में हिचकता क्यों नहीं बोलो

डॉ उदय 'मणि' कौशिक

मुक्तक .....

यहाँ के हर मुसाफिर को मुहब्बत की डगर दे दे
अगर तू दे सके , मेरी दुआओं में असर दे दे
जिसे जो चाहिए उसको अता कर शौक से लेकिन
मुझे रोते हुए दिल को हँसाने का हुनर दे दे ..........


डॉ उदय 'मणि' कौशिक

मुक्तक ......

हवा में खुशबुओं को घोलने का हौसला रक्खो
किसी भी हाल में सच बोलने का हौसला रक्खो
अँधेरे की शिकायत मत करो या तो जरा सी भी
नहीं तो खिड़कियों को खोलने का हौसला रक्खो
डॉ , उदय 'मणि ' कौशिक

Wednesday, July 9, 2008

अपने बारे में ...

बहुत इज्जत से नवाजा है ज़माने ने हमें

कुछ न कुछ देंगे नया हम भी ज़माने के लिए ....

जनकवि स्व श्री विपिन 'मणि'