आज अपना हो न हो पर ,कल हमारा आएगा

आज अपना हो न हो पर ,कल हमारा आएगा
रौशनी ही रौशनी होगी, ये तम छंट जाएगा


आज केवल आज अपने दर्द पी लें
हम घुटन में आज जैसे भी हो ,जी लें
कल स्वयं ही बेबसी की आंधियां रुकने लगेंगी
उलझने ख़ुद पास आकर पांव में झुकने लगेंगी
देखना अपना सितारा जब बुलंदी पायेगा
रौशनी के वास्ते हमको पुकारा जाएगा

आज अपना हो न हो पर कल हमारा आएगा ............

जनकवि स्व .विपिन 'मणि '

Monday, July 14, 2008

पूजनीय पिता जी की पुण्यस्मृति में ....



उठा कर हाथ हर कोई यही फरियाकरता है

दुबारा भेज उसको जो चमन आबाद करता है

ज़माने के लिए तुमने लगा दी जान की बाजी

तभी तो आज तक तुमको जमाना याद करता है ....


हमेशा वक्त को अपने इशारों पर नचाया था

लगा आवाज शब्दों से ज़माने को जगाया था

हवाओं-आँधियों ,तूफ़ान में चलते रहे हरदम

न जाने आपको चलना भला किसने सिखाया था ....

यहाँ पे मौसमों का आज वो उत्पात थोडी है

यहाँ पे आजकल उतनी कठिन बरसात थोडी है

किसी का दम नहीं है जो मुकाबिल चाल को रक्खे

'समय' के नाम से जीना हँसी की बात थोडी है ....

बगावत जब जरूरी हो ,नहीं डरना बगावत से

समय का सामना करना बहुत पुरजोर ताकत से

हमेशा फर्ज को तुमने उसूलों सा निभाया था

तभी तो वक्त लेता है तुम्हारा नाम इज्जत से.....

डॉ उदय 'मणि'कौशिक

चुनौती दे रहा हूँ मैं ....(ग़ज़ल ..)

अगर अल्फाज अन्दर से निकल कर आ नहीं सकते
नशा बनकर जमाने पर ,कभी वो छा नहीं सकते

बहुत डरपोक हो सचमुच ,तुम्हारा हौसला कम है
किसी भी हाल मैं तुम मंजिलों को पा नहीं सकते

उसे सबकुछ पता है , कौन कैसे याद करता है
किसी छापे -तिलक से तुम उसे बहला नहीं सकते

सुरों की भूलकर इनसे कभी उम्मीद मत करना
समंदर चीख सकते हैं ,समंदर गा नहीं सकते

चुनौती दे रहा हूँ मैं यहाँ के सूरमाओं को
जहाँ पे आ गया हूँ मैं वहां तुम आ नहीं सकते .....

डॉ उदय ' मणि' कौशिक

मुक्तक..

समंदर पार करने का जिगर इतना नहीं होता
हवाओं आँधियों से मैं निडर इतना नहीं होता
तुम्हारे साथ के दम पे यहाँ तक आ गया वरना
किसी भी हाल में मुझसे सफर इतना नहीं होता
डॉ उदय 'मणि'कौशिक