आज अपना हो न हो पर ,कल हमारा आएगा

आज अपना हो न हो पर ,कल हमारा आएगा
रौशनी ही रौशनी होगी, ये तम छंट जाएगा


आज केवल आज अपने दर्द पी लें
हम घुटन में आज जैसे भी हो ,जी लें
कल स्वयं ही बेबसी की आंधियां रुकने लगेंगी
उलझने ख़ुद पास आकर पांव में झुकने लगेंगी
देखना अपना सितारा जब बुलंदी पायेगा
रौशनी के वास्ते हमको पुकारा जाएगा

आज अपना हो न हो पर कल हमारा आएगा ............

जनकवि स्व .विपिन 'मणि '

Tuesday, July 15, 2008

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मैं समय हूँ.. (जनाकवि स्व विपिन 'मणि' की प्रतिनिधि कविता )

मैं समय हूँ कह रहा हूँ आँख खोलो

पग उठाओ और मेरे साथ हो लो

आज धरती पर तुम्हारी भूख के पौधे उगे हैं

लालची बादल अनेकों पर्वतों पे आ झुके हैं

आदमी की आँख मैं अब झांकती हैं नागफनियाँ

झर गयी निष्प्राण होकर देह की मासूम कलियाँ

कागजों से भर गयी है बरगदों की हर तिजोरी

घूमती काजल लगा कर आँख में महंगाई गोरी

मैं गगन से झांकता हूँ देख लो पलकें उठाकर
तोड़ दूँगा दर्प सबका एक दिन बिजली गिराकर

दुर्बलों की पीर से आँखें भिगोलो

मैं समय हूँ ,कह रहा आँख खोलो ....

चांदनी को दर्प था आकाश पर छाई हुई थी

झील के खामोश तट को नींद सी आयी हुई थी

फूल सब महके हुए थे क्यारियाँ चहकी हुई थी

शुक - पपीहा के स्वरों से डालियाँ बहकी हुई थी

धूल की लपटें लिए फ़िर एक दिन तूफ़ान आया

मौत का चेहरा भयानक त्रासदी को साथ लाया

पड़ गयी किरचें अनेकों साफ़ सुथरे दर्पणों पर

नाम मेरा ही लिखा था धुप से झुलसे वनों पर

मैल धोखे का ह्रदय से आज धोलो

मैं समय हूँ कह रहा हूँ आँख खोलो ...

वृक्ष के पत्ते हरे थे आज सब पीले हुए हैं

फूल थे सारे गुलाबी आज सब नीले हुए हैं

मैं समय हूँ देख लो तुम आज ये मेरा तमाशा

फ़ैल जायेगा अभी आकाश में कला धुआं सा

सोचता हूँ तुम घुटन में साँस कैसे ले सकोगे

कांपते हैं पांव मेरा साथ कैसे दे सकोगे

मील के पत्थर अनेकों देखते हैं राह मेरी

है अभी पुरुषार्थ तुममें थम लो तुम बांह मेरी

साहसी हो , वीरता के शब्द बोलो

मैं समय हूँ ,कह रहा हूँ आँख खोलो

पग उठाओ और मेरे साथ हो लो

जनकवि स्व श्री विपिन 'मणि'