ये जनकवि विपिन मणि की
बहुत ही लोकप्रिय ओजस्वी कविताओं में से एक है
जनकवि स्व . श्री विपिन 'मणि' एवं विख्यात चिकत्सक और युवा रचनाकार डॉ . उदय 'मणि' कौशिक की उत्कृष्ट हिन्दी रचनाएँ ....
सभी साथियों को सादर अभिवादन
पिछले एक सप्ताह से एक चिकित्स्कीय कार्यक्रम
और विश्व रंगमंच दिवस पे यहां आयोजित
तीन दिवसीय कर्यक्रम मे व्यस्तता रही ,
लिखने मे छुट्पुट ही आ पाया
उसी मे से एक मुक्तक देखियेगा -
तुम्हारे होठ मुकम्मल गुलाब लगते हैं
तुम्हारे बाल गज़ल की किताब लगते हैं
तुम्हें हमारी कसम है उदास मत होना
तुम्हारी आंख मे आंसू खराब लगते हैं
डा उदय ’मणि’
" ये जलेंगे हर-इक हाल मे रातभर
ये करेंगे उजाला हमेशा इधर
इन चिरागो कि परवाह मत कीजिये
इनपे होता नही है हवा का असर "
डा। उदय ’मणि’
कल से चार पंक्तियां जहन मे चल रही है एक मुक्तक के रूप मे ,
सबसे पहले आप सब से ही बांट रहा हू , कि -
चले हैं इस तिमिर को हम , करारी मात देने को
जहां बारिश नही होती , वहां बरसात देने को
हमे पूरी तरह अपना , उठाकर हाथ बतलाओ
यहां पर कौन राजी है , हमारा साथ देने को
सादर
डा उदय ’मणि’ कौशिक
हमारा फ़न अभी तक भी पुराना जानते हैं हम
जमाने , दोस्ती करके , निभाना जानते हैं हम
किसी भूचाल से जिनमे दरारें पड नही पायें
अभी तक इस तरह के घर बनाना जानते हैं हम
उठा पर्वत उठाये जा , हमे क्या फ़र्क पडता है
इशारो से पहाडों को , गिराना जानते हैं हम
हमारी बस्तियों मे तुम , अंधेरा कर न पाओगे
मशालें खून से अपने , जलाना जानते हैं हम
बरसती आग से हमको जरा भी डर नही लगता
कडकती धूप मे बोझा , उठाना जानते हैं हम
हवायें तेज हैं तो क्या , हमारा क्या बिगाडेंगी
पतंगें आंधियों मे भी , उडाना जानते हैं हम
जरूरत ही नहीं पडती हमें मंदिर मे जाने की
अगर मरते परिंदे को , बचाना जानते हैं हम
डा उदय मणि कौशिक
मै चंदा कम समझता हूं , सितारे कम समझता हूं
मैं रंगत कम समझता हूं, नजारे कम समझता हूं
उधर वो बोलता कम है नजर से बात करता है
इधर मेरी मुसीबत मैं , इशारे कम समझता हूं
डा उदय मणि
" कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप,
कौन खेत की मूली आप"
आज श्रेश्ठ व्यंगकार डा योगेन्द्र मणि जी के एक व्यंग की
पे पंक्तिया काफ़ी देर जहन में घूमती रही
फ़िर जो कुछ घूम रहा था उससे मैने
इन दो पंक्तियो को इस तरह से बढाने की कोशिश की है
कि
कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप,
कौन खेत की मूली आप
दुनिया भर की बाते छोड
जैसे भी हो कुर्सी पा
कुर्सी होगी तो सबको
पुण्य लगेंगे तेरे पाप
कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप,
कौन खेत की मूली आप
उसके आगे पीछे ही
सारी दुनिया होती है
जिसके सिर पे लगी दिखे
ऊंची कुर्सी वाली छाप
कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप,
कौन खेत की मूली आप
किसम किसम के देखे जब
तब जाकर ये पता चला
सबसे ज्यादा जहरीले
होते हैं संसद के सांप
कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप,
कौन खेत की मूली आप
डा उदय मणि
सादर अभिवादन
कल रात एक गज़ल के 4 - 5 शेर हुये हैं
सबसे पहले आप के साथ ही बांट रहा हू
देखियेगा ..
रोटी का चाहिये , न मुझे घर का चाहिये
लेकिन मुझे हिसाब, कटे सर का चाहिये
कमतर से दोस्ती मे शिकायत नहीं मुझे
दुश्मन तो मगर मुझको,बराबर का चाहिये
ऐसी लहर उठाये जो दुनिया को हिला दे
दर्जा अगर किसी को , समन्दर का चाहिये
बदला है क्या बताओ, संभलने के वास्ते
हमको सहारा आज भी, ठोकर का चाहिये
उनसे कहो कि हमको बुलाया नहीं करें
जिनको तमाशा मंच पे , जोकर का चाहिये
सादर
डा. उदय मणि