आज अपना हो न हो पर ,कल हमारा आएगा

आज अपना हो न हो पर ,कल हमारा आएगा
रौशनी ही रौशनी होगी, ये तम छंट जाएगा


आज केवल आज अपने दर्द पी लें
हम घुटन में आज जैसे भी हो ,जी लें
कल स्वयं ही बेबसी की आंधियां रुकने लगेंगी
उलझने ख़ुद पास आकर पांव में झुकने लगेंगी
देखना अपना सितारा जब बुलंदी पायेगा
रौशनी के वास्ते हमको पुकारा जाएगा

आज अपना हो न हो पर कल हमारा आएगा ............

जनकवि स्व .विपिन 'मणि '

Saturday, August 29, 2009

बोल जमूरे सच सच बोल ...

ये जनकवि विपिन मणि की

बहुत ही लोकप्रिय ओजस्वी कविताओं में से एक है

आज अपना हो न हो ... ( ओडियो)

Thursday, April 9, 2009

कहूं गर आज महफ़िल मे ...

कहूं गर आज महफ़िल मे , सहे कितने सितम दिल ने
नहीं मुमकिन बयां इसकी , सही मैं दासतां कर दू

हुआ नाकाम ही अक्सर , जहां की ठोकरें खाकर

न अब ये वक्त पे हंसता , न गम के दौर मे रोता
परेशां हूं मैं खुद इससे , करूं किससे गिला शिकवा
न ये दुनिया मेरी सुनती , न अब ये दिल मेरी सुनता
अगर टूटे हुये दिल का , नजारा खुद करे दुनिया
मैं धोकर जख्म अश्कों से जहां के रूबरू कर दूं

कहूं गर आज महफ़िल मे , सहे कितने सितम दिल ने

नहीं मुमकिन बयां इसकी , सही मैं दास्तां कर दू

पिलाया गम इसे अक्सर , सुकूं का नाम ले लेकर

सदा ही दर्द बख्शा है , इसे बेदर्द दुनिया ने
सताया आज तक इसको , वफ़ा का नाम ले लेकर
मिलाया खाक मे देखो , इसी बेदर्द दुनिया ने
यकीं आयेगा तब उनको , जो आंखें फ़ेर बैठे हैं
अगर मैं सामने उनके , शिकस्ता दिल अभी कर दूं

कहूं गर आज महफ़िल मे , सहे कितने सितम दिल ने

नहीं मुमकिन बयां इसकी , सही मैं दास्तां कर दूं

Sunday, April 5, 2009

आज दर्द की प्रिया बनी हुयी है जिंदगी

आज दर्द की प्रिया बनी हुयी है जिंदगी

अभाव की उडी पतंग , जिंदगी के गांव में
पल रही मुसीबते , बरगदों की छांव मे
आह भर रही बहार , पतझरों के द्वार पर
स्वार्थों के पेड से बंधी हुयी है जिंदगी

आज दर्द की प्रिया बनी हुयी है जिंदगी

धो रही नसीब आंख आंसुओं की धार से
बुला रही है पीर पास , धडकनो को प्यार से
कांपते हैं पांव ,सांस आखिरी सी ले रहे
मिलावटों के नाग की , डसी हुयी है जिंदगी


आज दर्द की प्रिया बनी हुयी है जिंदगी

उग रहे हैं शूल आज , जिंदगी की राह मे
बेबसी बदल गयी है रात के गुनाह मे
बह रहे हैं घाव , आह - सिसकियां लिये हुये
भूख की सलीब पर टंगी हुयी है जिंदगी

आज दर्द की प्रिया बनी हुयी है जिंदगी

पाप थपथपा रहा है , जिंदगी के द्वार को
पोलियो सा हो गया है , स्नेह के विचार को
आंधियों के काफ़िले ने पांव बांध से दिये
उलझनो की धूल मे सनी हुयी है जिंदगी

आज दर्द की प्रिया बनी हुयी है जिंदगी

Thursday, April 2, 2009

मेहरबां को हुआ आज क्या देखिये - ग़ज़ल



मेहरबां को हुआ आज क्या देखिये
कर दिये गम हज़ारों अता देखिये


भूख दी , प्यास दी, दी हैं मजबूरियां
और क्या देगा हमको खुदा देखिये


जख्म गहरे है , दर्दो का अंबार है
फ़िर भी हंसते हैं हम, हौसला देखिये

जिस अदा ने मेरे दिल को घायल किया
आइने मे वो अपनी अदा देखिये


हमने ओढी , बिछायी है रुसवाइयां
उनके खातिर हमारी वफ़ा देखिये

जिनको हंसना सिखाया उन्हें खल गया
मुस्कुराना हमारा जरा देखिये

Tuesday, March 31, 2009

सूरज नया उगाना है - मुक्तक

कोटा मे हुये तीन दिवसीय नाट्य समारोह का संचालन करते हुये, शहर मे एक ओडीटोरियम की माग के संदर्भ मे कुछ एक मुक्तक लिखने मे आये - देखियेगा


ये नाटक ये रंगकर्म तो ,
केवल एक बहाना है
हम लोगों का असली मकसद
सूरज नया उगाना है


कभी मुस्कान चेहरे से हमारे खो नहीं सकती
किसी भी हाल मे आंखें हमारी रो नही सकती
हमारे हाथ मे होंगी हमारी मंजिलें क्योंकि
कभी दमदार कोशिश बेनतीजा हो नही सकती



दुनियाभर के अंधियारे पे , सूरज से छा जाते हम
नील गगन के चांद सितारे , धरती पर ले आते हम
अंगारों पे नाचे तब तो , सारी दुनिया थिरक उठी
सोचो ठीक जगह मिलती तो , क्या करके दिखलाते हम



दिखाने के लिये थोडी दिखावट , नाटको में है
चलो माना कि थोडी सी बनावट , नाटकों मे है
हकीकत में हकीकत है कहां पर आज दुनिया मे
हकीकत से ज्यादा तो हकीकत , नाटको मे है


ये जमाने को हंसाने के लिये हैं
ये खुशी दिल मे बसाने के लिये हैं
ये मुखौटे , सच छुपाने को नहीं हैं
ये हकीकत को बताने के लिये हैं


डा. उदय ’मणि’ कौशिक

Monday, March 30, 2009

तुम्हारी आंख मे आंसू खराब लगते हैं - मुक्तक

सभी साथियों को सादर अभिवादन
पिछले एक सप्ताह से एक चिकित्स्कीय कार्यक्रम

और विश्व रंगमंच दिवस पे यहां आयोजित

तीन दिवसीय कर्यक्रम मे व्यस्तता रही ,

लिखने मे छुट्पुट ही आ पाया
उसी मे से एक मुक्तक देखियेगा -

तुम्हारे होठ मुकम्मल गुलाब लगते हैं
तुम्हारे बाल गज़ल की किताब लगते हैं
तुम्हें हमारी कसम है उदास मत होना
तुम्हारी आंख मे आंसू खराब लगते हैं

डा उदय ’मणि’

Friday, March 27, 2009

श्री गणेश लाल व्यास " उस्ताद " - एक स्केच

कल से कोटा मे साहित्य अकादमी एवं " विकल्प" जन सांस्क्रतिक मंच द्वारा
विख्यात कवि स्व श्री गणेश लाल व्यास " उस्ताद " की जन्म शताब्दी पर
दो दिवसीय कार्यक्रम आयोजित हो रहा है
इस संदर्भ मे इस कार्यक्रम के लिये कल मैने श्री गणेश लाल व्यास " उस्ताद "
का एक स्केच बनाया है

Tuesday, March 24, 2009

इन चिरागो कि परवाह मत कीजिये - मुक्तक

" ये जलेंगे हर-इक हाल मे रातभर

ये करेंगे उजाला हमेशा इधर

इन चिरागो कि परवाह मत कीजिये

इनपे होता नही है हवा का असर "


डा। उदय ’मणि’

Monday, March 23, 2009

यहां पर कौन राजी है , हमारा साथ देने को - मुक्तक


कल से चार पंक्तियां जहन मे चल रही है एक मुक्तक के रूप मे ,
सबसे पहले आप सब से ही बांट रहा हू , कि -


चले हैं इस तिमिर को हम , करारी मात देने को
जहां बारिश नही होती , वहां बरसात देने को
हमे पूरी तरह अपना , उठाकर हाथ बतलाओ
यहां पर कौन राजी है , हमारा साथ देने को

सादर
डा उदय ’मणि’ कौशिक




कल से चार पंक्तियां जहन मे चल रही है एक मुक्तक के रूप मे ,
सबसे पहले आप सब से ही बांट रहा हू , कि -


चले हैं इस तिमिर को हम , करारी मात देने को
जहां बारिश नही होती , वहां बरसात देने को
हमे पूरी तरह अपना , उठाकर हाथ बतलाओ
यहां पर कौन राजी है , हमारा साथ देने को

सादर
डा उदय ’मणि’ कौशिक


Sunday, March 22, 2009

अगर मरते परिंदे को , बचाना जानते हैं हम ..गज़ल

हमारा फ़न अभी तक भी पुराना जानते हैं हम

जमाने , दोस्ती करके , निभाना जानते हैं हम

किसी भूचाल से जिनमे दरारें पड नही पायें

अभी तक इस तरह के घर बनाना जानते हैं हम

उठा पर्वत उठाये जा , हमे क्या फ़र्क पडता है

इशारो से पहाडों को , गिराना जानते हैं हम

हमारी बस्तियों मे तुम , अंधेरा कर न पाओगे

मशालें खून से अपने , जलाना जानते हैं हम

बरसती आग से हमको जरा भी डर नही लगता

कडकती धूप मे बोझा , उठाना जानते हैं हम

हवायें तेज हैं तो क्या , हमारा क्या बिगाडेंगी

पतंगें आंधियों मे भी , उडाना जानते हैं हम

जरूरत ही नहीं पडती हमें मंदिर मे जाने की

अगर मरते परिंदे को , बचाना जानते हैं हम

डा उदय मणि कौशिक

इशारे कम समझता हूं - मुक्तक

मै चंदा कम समझता हूं , सितारे कम समझता हूं

मैं रंगत कम समझता हूं, नजारे कम समझता हूं

उधर वो बोलता कम है नजर से बात करता है

इधर मेरी मुसीबत मैं , इशारे कम समझता हूं

डा उदय मणि

Thursday, March 19, 2009

कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप - व्यंग्य

" कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप,
कौन खेत की मूली आप"
आज श्रेश्ठ व्यंगकार डा योगेन्द्र मणि जी के एक व्यंग की
पे पंक्तिया काफ़ी देर जहन में घूमती रही
फ़िर जो कुछ घूम रहा था उससे मैने
इन दो पंक्तियो को इस तरह से बढाने की कोशिश की है
कि


कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप,
कौन खेत की मूली आप


दुनिया भर की बाते छोड
जैसे भी हो कुर्सी पा
कुर्सी होगी तो सबको
पुण्य लगेंगे तेरे पाप


कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप,
कौन खेत की मूली आप


उसके आगे पीछे ही
सारी दुनिया होती है
जिसके सिर पे लगी दिखे
ऊंची कुर्सी वाली छाप


कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप,
कौन खेत की मूली आप


किसम किसम के देखे जब
तब जाकर ये पता चला
सबसे ज्यादा जहरीले
होते हैं संसद के सांप


कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप,
कौन खेत की मूली आप


डा उदय मणि

Tuesday, March 17, 2009

मैं अपनी सांस को तब तक , कही जाने नही दूंगा



तुम्हारा मन हमारे गीत , जिस दिन तक नही गाता
नशा मेरा तुम्हारे दिल पे , जिस दिन तक नही छाता
मैं अपनी सांस को तब तक , कही जाने नही दूंगा
तेरे लब पे हमारा नाम , जिस दिन तक नही आता

डा उदय मणि

Monday, March 16, 2009

जाता नही जहन से , पुराना मकान वो



दुनिया था हमारी वो , हमारा जहान वो
लगता था हमें आन-बान ,और शान वो
होने को बडा है ये , नया घर बहुत मगर
जाता नही जहन से , पुराना मकान वो



डा उदय ’मणि’ कौशिक

Sunday, March 15, 2009

मेरी नजर किसी के , सहारे पे नही है - मुक्तक



सूरज पे नहीं चांद पे , तारे पे नहीं है
चौखट पे किसी या किसी द्वारे पे नही है
है अपने बाजुओं पे , भरोसा बहुत मुझे
मेरी नजर किसी के , सहारे पे नही है

डा. उदय मणि

कभी अपने गिरेबानों के अन्दर क्यों नही जाते - ग़ज़ल


हमेशा घर पे रहते हो , कहीं पर क्यों नही जाते
बताओ तो सही तुम लोग, बाहर क्यों नही जाते

अगर ये जिन्दगी इतनी , अधिक बेकार लगती है
भला क्यों जी रहे हो तुम, भला मर क्यों नही जाते

यहां आकर तुम्हें सब कुछ , समझ मे आ गया होगा
यहां जो लोग आते है , वो आकर क्यों नही जाते

जहां से हो रहे है सब , इशारे इस तबाही के
हमारे हाथ के पत्थर , वहां पर क्यों नहीं जाते

तुम्हारा घर नही है या , तुम्हारे घर नही कोई
अगर ऐस नही है तो , भला घर क्यों नहीं जाते

’उदय’ पर उंगलियां तो तुम , बहुत हंसकर उठाते हो
कभी अपने गिरेबानों के अन्दर क्यों नही जाते

सादर
डा उदय मणि

Friday, March 13, 2009

दुश्मन तो मगर मुझको,बराबर का चाहिये ....गज़ल

सादर अभिवादन

कल रात एक गज़ल के 4 - 5 शेर हुये हैं
सबसे पहले आप के साथ ही बांट रहा हू

देखियेगा ..

रोटी का चाहिये , न मुझे घर का चाहिये
लेकिन मुझे हिसाब, कटे सर का चाहिये

कमतर से दोस्ती मे शिकायत नहीं मुझे
दुश्मन तो मगर मुझको,बराबर का चाहिये


ऐसी लहर उठाये जो दुनिया को हिला दे
दर्जा अगर किसी को , समन्दर का चाहिये


बदला है क्या बताओ, संभलने के वास्ते
हमको सहारा आज भी, ठोकर का चाहिये


उनसे कहो कि हमको बुलाया नहीं करें
जिनको तमाशा मंच पे , जोकर का चाहिये


सादर
डा. उदय मणि

Thursday, March 12, 2009

ये हवाओं के भरोसे पर नहीं है - मुक्तक


पेट खाली , तन उघाडा , घर नहीं है
देख लो फ़िर भी झुकाया सर नहीं है
सब चिरागों से अलग है , ये चिराग
ये हवाओं के भरोसे पर नहीं है

डा उदय मणि

Tuesday, March 10, 2009

हिन्दी ब्लॉग परिवार के सभी साथियों मित्रों , अग्रजों को
रंगो के इस त्यौहार पर सह्रिदय
असीम शुभकामनाएं


मौज मस्ती , ढेर सा हुडदंग होना चाहिये
नाच गाना , ढोल ताशे , चंग होन चाहिये
कोई ऊंचा ,कोई नीचा , और छोटा कुछ नही
हर किसी का एक जैसा रंग होना चाहिये


और

नजरें उठाओ अपनी सब आस पास यारों
इस बार रह न जाये कोई उदास यारों
सच मायने मे होली ,तब जा के हो सकेगी
जब एक सा दिखेगा , हर आम-खास यारों


शुभकामनाओ सहित
डा. उदय मणि

Sunday, March 8, 2009

तुम्हारी महफिलों में जब, हमारी बात होती है ..ग़ज़ल

तुम्हारी महफिलों में जब, हमारी बात होती है ॥ग़ज़ल


शरारत बादलों की ये , धरा के साथ होती है
जरूरत किस जगह पर है , कहाँ बरसात होती है

हमें मालूम है तुमको बहुत अच्छा नहीं लगता
तुम्हारी महफिलों में जब , हमारी बात होती है

हमारी जिंदगी तो जंग के , मैदान जैसी है
जहाँ कमजोर लोगों की , हमेशा मात होती है

ये दहशतगर्द हैं इनको , किसी मजहब से मत जोडो
न इनका धर्म होता है , न इनकी जात होती है

उदय तुम जिस जगह पर हो , वहीं पे दिन निकलता है
जहाँ पे तुम नहीं होते , वहाँ पे रात होती है

डा उदय 'मणि '

होली की अनन्य शुभकामनाओं सहित

सभी साथियो , मित्रों को होली पर
असीम शुभकामनाओं सहित..

लगें छलकने इतनी खुशियां , बरसें सबकी झोली मे
बीते वक्त सभी का जमकर , हंसने और ठिठोली मे
लगा रहे जो इस होली से , आने वाली होली तक
ऐसा कोई रंग लगाया , जाये अबके होली मे

डा. उदय मणि

Friday, March 6, 2009


साथी शिशिर मित्तल जी को उनके विवाह पर उपहार के लिये बनाया स्केच
न जाने क्यों ये मुझे बडा अच्छा लगा ... और आपको ...

Thursday, March 5, 2009

दुनियादारी सीख गया - एक मुक्तक

दिल मे नफ़रत मुंह पे बातें , प्यारी प्यारी सीख गया
सारी तिकडम , तौर - तरीके सब अय्यारी सीख गया
बुरा नहीं है अच्छा है ये जो कुछ मेरे साथ हुआ
इसके कारण मैं भी थोडी , दुनिया दारी सीख गया

सादर
डा. उदय ’ मणि’
काफी समय बाद एक स्केच बनाने में आया है उसे आप सब के साथ बाँट रहा हूँ इस बार ,
ये दरअसल एक प्रसिद्द रूसी मूर्तिकार इवान शद्र की बनायी बहुत प्रसिद्द मूर्ती का स्केच

मुक्तक

बीते कुछ दिन मे हमारे आस पास आतंक और घ्रणा का बडा दुखद सा वातावरण रहा
और , कल पाकिस्तान की अति दुखद घटना के बाद एक न्यूज चैनल पे बहुत छोटे बच्चों को हथियारों सहित दिखया , उस पे एक मुक्तक सा लिखने मे आया , देखियेगा

" जिनकी आंखों मे तितली या तोते,चिडिया होने थे
जिन बच्चों के तन पे कपडे बढिया-बढिया होने थे
उनके हाथों मे बन्दूकें , बम , पिस्तौलें थमा दिये
जिन हाथों मे खेल खिलौने , गुड्डे , गुडिया होने थे "


सादर
डा. उदय ’ मणि’

Sunday, March 1, 2009

व्यंग्य- नेता बनाम कुत्ता

तथाकथित पेशेवर नेता

को कुत्ते ने काटा।

कुत्तों की पूरी जमात ने उसे डांटा यह
तूने क्या कर दालाजिसका काटाआई।ए।एस अफ़सर तकपानी नहीं माँगतातूने उसे काट ड़ाला।यदि तेरे काटने सेनेता जी मेंवफ़ादारी का गुण आ गयाऔर तुझपरनेताजी का खून असर जमा गयातो हम बरबाद हो जायेगेंराह चलते लोग तुझेनेता बतलायेगें ।काश........!देश के सारे नेताओं कोकुत्ते से कटवा दिया जाएऔर नेताओं मेंथोड़ा सा भी अंशवफ़ादारी का आ जाऎतो मेरा देश महान का सपनासाकार हो जाऎ....
॥डा. योगेन्द्र मणि