तुम्हारी महफिलों में जब, हमारी बात होती है ॥ग़ज़ल
शरारत बादलों की ये , धरा के साथ होती है
जरूरत किस जगह पर है , कहाँ बरसात होती है
हमें मालूम है तुमको बहुत अच्छा नहीं लगता
तुम्हारी महफिलों में जब , हमारी बात होती है
हमारी जिंदगी तो जंग के , मैदान जैसी है
जहाँ कमजोर लोगों की , हमेशा मात होती है
ये दहशतगर्द हैं इनको , किसी मजहब से मत जोडो
न इनका धर्म होता है , न इनकी जात होती है
उदय तुम जिस जगह पर हो , वहीं पे दिन निकलता है
जहाँ पे तुम नहीं होते , वहाँ पे रात होती है
डा उदय 'मणि '
नव वर्ष २०२४
3 months ago
4 comments:
उदय जी बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने...
ये दहशतगर्द हैं इनको , किसी मजहब से मत जोडो
न इनका धर्म होता है , न इनकी जात होती है
वाह वा...वा...लाजवाब शेर...और इस ग़ज़ल का हर शेर बब्बर शेर है...शानदार और जानदार...
ग़ज़ल के मकते से जगजीत सिंह जी की गयी ग़ज़ल का शेर याद आ गया:
बरसात का बदल तो दीवाना है क्या जाने
किस घर से गुज़रना है, किस घर को भिगोना है..
आपको होली की शुभकामनाएं....
नीरज
हमें मालूम है तुमको बहुत अच्छा नहीं लगता
तुम्हारी महफिलों में जब , हमारी बात होती है
हमारी जिंदगी तो जंग के , मैदान जैसी है
जहाँ कमजोर लोगों की , हमेशा मात होती है
waah bahut achhi gazal,ye sher bhut pasand aaye.
मैं हर बार बस इतना लिख पाती हूँ कि " आप बहुत अच्छा लिखते हैं"
बहुत अच्छा है...
हमें मालूम है तुमको बहुत अच्छा नहीं लगता
तुम्हारी महफिलों में जब , हमारी बात होती है
हमारी जिंदगी तो जंग के , मैदान जैसी है
जहाँ कमजोर लोगों की , हमेशा मात होती है
वाह वाह ,, बहुत खूब
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