हमारा फ़न अभी तक भी पुराना जानते हैं हम
जमाने , दोस्ती करके , निभाना जानते हैं हम
किसी भूचाल से जिनमे दरारें पड नही पायें
अभी तक इस तरह के घर बनाना जानते हैं हम
उठा पर्वत उठाये जा , हमे क्या फ़र्क पडता है
इशारो से पहाडों को , गिराना जानते हैं हम
हमारी बस्तियों मे तुम , अंधेरा कर न पाओगे
मशालें खून से अपने , जलाना जानते हैं हम
बरसती आग से हमको जरा भी डर नही लगता
कडकती धूप मे बोझा , उठाना जानते हैं हम
हवायें तेज हैं तो क्या , हमारा क्या बिगाडेंगी
पतंगें आंधियों मे भी , उडाना जानते हैं हम
जरूरत ही नहीं पडती हमें मंदिर मे जाने की
अगर मरते परिंदे को , बचाना जानते हैं हम
डा उदय मणि कौशिक
3 comments:
अच्छी ग़ज़ल....बेहतर रवानगी.....
हमारी बस्तियों मे तुम , अंधेरा कर न पाओगे
मशालें खून से अपने , जलाना जानते हैं हम
बहुत खूब। भाई वाह।। कहते हैं कि-
सारे चराग हमने लहू से जलाये हैं।
जुगनू पकड़ के घर में उजाला नहीं किया।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
Uday ji
sras saral dhara me baha le jana aapki rachnao ki khasiat hai.
Kiran Rajpurohit Nitila
Post a Comment