एक है रौशनी की पुजारी ग़ज़ल
दूसरी है अंधेरों की मारी ग़ज़ल
हो समझदार तो फर्क ख़ुद देख लो
वो तुम्हारी ग़ज़ल ,ये हमारी ग़ज़ल
इसका हँसना -हंसाना कहाँ गुम गया
इसके चेहरे की रंगत कहाँ खो गयी
बोलिए तो सही क्या हुआ किसलिए
मुस्कुराती नहीं अब तुम्हारी ग़ज़ल
जल्दबाजी हुई आपसे , आपने
वो सफा ठीक तरहा से देखा नहीं
नाम मेरा लिखा था उसी पृष्ठ पर
आपने जिस जगह से उतारी ग़ज़ल
शर्म की बात होगी हमारे लिए
गीत-कविता का मस्तक अगर झुक गया
शर्म की बात होगी हमारे लिए
चुटकुलों से अगर जंग हारी ग़ज़ल
डॉ उदय 'मणि'कौशिक
नव वर्ष २०२४
3 months ago
2 comments:
एक है रौशनी की पुजारी ग़ज़ल
दूसरी है अंधेरों की मारी ग़ज़ल
हो समझदार तो फर्क ख़ुद देख लो
वो तुम्हारी ग़ज़ल ,ये हमारी ग़ज़ल
वाह..वा...उदय भाई....बहुत खूब...पूरी ग़ज़ल में कलाम की पुख्तगी नजर आ रही है...लिखते रहिये.
नीरज
मैं नीरज भाई की बात से शत प्रतिशत सहमत हूँ. मुझे यह पंक्तियां विशेष लगीं
जल्दबाजी हुई आपसे , आपने
वो सफा ठीक तरहा से देखा नहीं
नाम मेरा लिखा था उसी पृष्ठ पर
आपने जिस जगह से उतारी ग़ज़ल
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