आज अपना हो न हो पर ,कल हमारा आएगा

आज अपना हो न हो पर ,कल हमारा आएगा
रौशनी ही रौशनी होगी, ये तम छंट जाएगा


आज केवल आज अपने दर्द पी लें
हम घुटन में आज जैसे भी हो ,जी लें
कल स्वयं ही बेबसी की आंधियां रुकने लगेंगी
उलझने ख़ुद पास आकर पांव में झुकने लगेंगी
देखना अपना सितारा जब बुलंदी पायेगा
रौशनी के वास्ते हमको पुकारा जाएगा

आज अपना हो न हो पर कल हमारा आएगा ............

जनकवि स्व .विपिन 'मणि '

Thursday, July 24, 2008

मुक्तक ...

मौसमों का डर नहीं है अब ज़रा भी
अब नहीं हैं हम कोई बेजान तिनके
वक्त ने चेहरा बदलकर रख दिया है
बन चुके हैं वृक्ष अब पौधे 'विपिन' के
डॉ उदय 'मणि'कौशिक

6 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया मुकत्क है।

डा ’मणि said...

मुक्तक पर प्रोत्साहन के लिए बहुत धन्यवाद ,परमजीत जी

नीरज गोस्वामी said...

मुक्तक में आत्मविश्वाश को जिस तरह से दर्शाया गया है वो अनुकरणीय है...नमन विपिन जी को ऐसी अद्भुत रचना के लिए.
नीरज

मीत said...

bahut acha likhte hain mani ji...
mujhe protsahan ke liye dhnyawaad...
or apki un char panktiyon main bahut hi dum hai hum gazlon ko hargiz na harne denge...
keep it up

श्रद्धा जैन said...

Muktak bhaut prbhav shaali raha

गरिमा said...

इस हिम्मत से जो कोई भी बढा होगा
फिर पीछे वो क्या देखने मुडा होगा
बीत जाते है मौसम ऐसे ही पल पल
सोचती हूँ वो भी इसी जमीं से निकला होगा