आज अपना हो न हो पर ,कल हमारा आएगा
रौशनी ही रौशनी होगी, ये तम छंट जाएगा
आज केवल आज अपने दर्द पी लें
हम घुटन में आज जैसे भी हो ,जी लें
कल स्वयं ही बेबसी की आंधियां रुकने लगेंगी
उलझने ख़ुद पास आकर पांव में झुकने लगेंगी
देखना अपना सितारा जब बुलंदी पायेगा
रौशनी के वास्ते हमको पुकारा जाएगा
आज अपना हो न हो पर कल हमारा आएगा ............
जनकवि स्व .विपिन 'मणि '
Sunday, July 27, 2008
एक और आव्हान ...
देख लो नजरें उठाकर हर तरफ़
हो रही हैं साजिशें अलगाव की
गीत - ग़ज़लों के विषय बदलो जरा
अब जरूरत है बहुत बदलाव की ...
डॉ उदय 'मणि' कौशिक
Friday, July 25, 2008
आव्हान ...( आज के बम - धमाकों के जवाब में )
मौत का समान फ़िर जुटने लगा , कुछ कीजिये .....
एक मुक्तक ...(आज के बम -धमाकों के जवाब में )
इस दिल से जब भी निकलेगी ग़ज़ल प्यार की निकलेगी
चाहे जितनी नफरत डालो कितना भी बारूद भरो
इस मिट्टी से जब निकलेगी फसल प्यार की निकलेगी
डॉ उदय 'मणि'कौशिक
Thursday, July 24, 2008
मुक्तक ...
अब नहीं हैं हम कोई बेजान तिनके
वक्त ने चेहरा बदलकर रख दिया है
बन चुके हैं वृक्ष अब पौधे 'विपिन' के
डॉ उदय 'मणि'कौशिक
चुटकुलों से अगर जंग हारी ग़ज़ल ...
दूसरी है अंधेरों की मारी ग़ज़ल
हो समझदार तो फर्क ख़ुद देख लो
वो तुम्हारी ग़ज़ल ,ये हमारी ग़ज़ल
इसका हँसना -हंसाना कहाँ गुम गया
इसके चेहरे की रंगत कहाँ खो गयी
बोलिए तो सही क्या हुआ किसलिए
मुस्कुराती नहीं अब तुम्हारी ग़ज़ल
जल्दबाजी हुई आपसे , आपने
वो सफा ठीक तरहा से देखा नहीं
नाम मेरा लिखा था उसी पृष्ठ पर
आपने जिस जगह से उतारी ग़ज़ल
शर्म की बात होगी हमारे लिए
गीत-कविता का मस्तक अगर झुक गया
शर्म की बात होगी हमारे लिए
चुटकुलों से अगर जंग हारी ग़ज़ल
डॉ उदय 'मणि'कौशिक
मुक्तक ....
किसी पे जुल्म होता देख चुप रहना नहीं आता
हमेशा साफ़ कहते है , हमारी खासियत है ये
हमें ज्यादा घुमाकर बात को कहना नहीं आता ...
डॉ उदय 'मणि' कौशिक
Wednesday, July 23, 2008
जमी है बर्फ बरसों से ... ( ग़ज़ल )
दुआएं कीजिये कुछ देर को सूरज निकल जाए
करो श्रृंगार धरती का , इसे इतना हरा कर दो
तबीयत बादलों की आप ही इसपे मचल जाए
अँधेरा रह नहीं सकता ,किसी भी हाल में बिल्कुल
अगर सबकी निगाहों में , सुबह का ख्वाब पल जाए
बहुत ग़मगीन है माहौल ,कुछ ऐसा करो जिस से
तुम्हारा दिल बहल जाए ,हमारा दिल बहल जाए
डॉ उदय 'मणि' कौशिक
जानते हैं हम ....( ग़ज़ल )
जमाने दोस्ती करके , निभाना जानते हैं हम
किसी भूचाल से इनमे , दरारें पड़ नहीं सकती
अभी तक इस तरह के घर, बनाना जानते हैं हम
उठा पर्वत उठाये जा , हमें क्या फर्क पड़ता है
इशारों से पहाडों को , गिराना जानते हैं हम
हमारी बस्तियों में तुम , अँधेरा कर न पाओगे
मशालें खून से अपने जलाना , जानते हैं हम
बरसती आग से हमको , जरा भी डर नहीं लगता
कड़कती धूप में बोझा , उठाना जानते हैं हम
हवाएं तेज हैं तो क्या , हमारा क्या बिगाडेंगी
पतंगें आँधियों में भी , उडाना जानते हैं हम
जरूरत ही नहीं पड़ती , हमें मन्दिर में जाने की
अगर मरते परिंदे को , बचाना जानते हैं हम ........
डॉ उदय 'मणि'कौशिक
आपकी सक्रिय प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा में ...
डॉ उदय 'मणि'कौशिक
094142- 60806
684 महावीर नगर II
umkaushik@gmail.com
udaymanikaushik@yahoo.co.in
Tuesday, July 22, 2008
पूजनीय पिताजी (जनकवि स्व. विपिन 'मणि) की पुण्य स्मृति मे
उठा कर हाथ हर कोई यही फरियाद करता है
दुबारा भेज उसको जो चमन आबाद करता है
ज़माने के लिए तुमने लगा दी जान की बाजी
तभी तो आज तक तुमको जमाना याद करता है ....
हमेशा वक्त को अपने इशारों पर नचाया था
लगा आवाज शब्दों से ज़माने को जगाया था
हवाओं-आँधियों ,तूफ़ान में चलते रहे हरदम
न जाने आपको चलना भला किसने सिखाया था ....
यहाँ पे मौसमों का आज वो उत्पात थोडी है
यहाँ पे आजकल उतनी कठिन बरसात थोडी है
किसी का दम नहीं है जो मुकाबिल चाल को रक्खे
'समय' के नाम से जीना हँसी की बात थोडी है ....
बगावत जब जरूरी हो ,नहीं डरना बगावत से
समय का सामना करना बहुत पुरजोर ताकत से
हमेशा फर्ज को तुमने उसूलों सा निभाया था
तभी तो वक्त लेता है तुम्हारा नाम इज्जत से.....
डॉ उदय 'मणि'कौशिक
जनकवि स्व . श्री विपिन 'मणि' ...........संक्षिप्त जीवन परिचय
: 12 दिसम्बर 1948 से 23 अगस्त 2002
शिक्षा
: उच्च माध्यमिक स्कूली शिक्षा
कार्यक्षेत्र
:उत्पादन के क्षेत्र में 35 वर्ष उल्लेखनीय दक्षता से कार्य करने के पश्चात् , शिफ्ट इंजिनियर - अ के उच्च तकनीकी पद से स्वैच्छिक सेवानिवृति्
:साहित्यिक एवं सांस्कृतिक सृजनशीलता के बहुआयामी उन्नयन की गतिविधियाँ
:जनवादी साहित्यिक अभियान के अग्रणी पुरोधा
:एक दशक तक जनवादी लेखक संघ के जिलाध्यक्ष एवं जलेस प्रकाशन तथा सहयोगी प्रकाशन योजना के संस्थापक सदस्य
रहे
अभिरुचियाँ
: रंगमंच के बेजोड़ कलाकार
:कबड्डी के स्टेट प्लेयर
:साहित्यिक - सांस्कृतिक प्रतियोगितओं में मानक पुरुस्कार विजेता रहे
:पीडितों की मदद के लिए हर प्रकार से जोखिम उठाना
:मंचों के लोकप्रिय , लाडले , एवं ओजस्वी कवि
मुक्तक...
हवाओं आँधियों से मैं निडर इतना नहीं होता
तुम्हारे साथ के दम पे यहाँ तक आ गया वरना
किसी भी हाल में मुझसे सफर इतना नहीं होता
डॉ उदय 'मणि'कौशिक
मुक्तक .......
हमारी कोशिशें हैं इस, धरा को जगमगाने की
हमारी आँख ने काफी, बड़ा सा ख्वाब देखा है
हमारी कोशिशें हैं इक, नया सूरज उगाने की ..........
डॉ उदय 'मणि' कौशिक
Monday, July 21, 2008
इस धरा की गोद में ..........
दो हमें सामर्थ्य इतना पार सागर कर सकें
ना डरें हम आँधियों से ,ना डरें तूफ़ान से
कश्तियाँ चलती रहें हरदम हमारी शान से
जो कठिन हालात में भी अनवरत जलता रहे
हर किसी के द्वार पे हम दीप ऐसा धर सकें
दो हमें सामर्थ्य इतना पर सागर कर सकें ......
हम मिटा पायें ह्रदय से हर घृणा को ,द्वेष को
हम बदल पायें जरा सा आज के परिवेश को
कर सकें हम स्नेह का संचार अन्तिम श्वास तक
जो दिखे पीड़ित -दुखित ,दुःख - दर्द उसका हर सकें
इस धारा की गोद में नभ के सितारे भर सकें
दो हमें सामर्थ्य इतना पर सागर कर सकें .....
डॉ उदय 'मणि' कौशिक
पूजनीय पिता जी (जनकवि स्व विपिन 'मणि' ) की स्मृति में ,,,

कौन कहता है हमारे , साथ में अब तुम नहीं हो
तुम यहीं हो ,तुम यहीं हो ,तुम यहीं हो ,.......
आपकी खुशबू अभी तक आ रही है हर जगह से
आपको महसूस करते हैं पुरानी ही तरह से
किस घड़ी किस पल बताओ आपको हम भूल पाते
जागते सोते हमेशा आपको हम पास पाते
जिस सहारे की बदौलत आज तक पाया किनारा
आज तक भी मिल रहा है उँगलियों का वो सहारा
साफ सुनते हैं सभी हम हर दिवस में हर निशा में
आपकी आवाज अब तक गूंजती है हर दिशा में
आप हो आकाश सबका ,आप हम सब की जमीं हो
तुम यहीं हो , तुम यहीं हो , तुम यहीं हो ,.........
गर न होते आप कैसे ये चमन गुलजार होता
किस तरह हंसती हवाएं खुशनुमा संसार होता
किस तरह खिलते यहाँ पर फूल कलियाँ मुस्कुराती
सिर्फ सन्नाटा नज़र आता जहाँ तक आँख जाती
आंसुओं की धार बहती , होठ सबके थरथराते
कोयलों के कंठ से फ़िर गीत कैसे फूट पाते
किस तरह से दीप जलते दिख रहे होते यहाँ पर
फैल जाते घोर तं के पांव सारी ही जगह पर
आप हो मुस्कान सबकी ,आप हम सबकी हँसी हो
तुम यहीं हो , तुम यहीं हो , तुम यहीं हो ,...........
आपके दम से अभी तक कंपकंपी है बरगदों में
बिजलियाँ गिरती नहीं हैं पेड़ पौधों की जदों में
दम नहीं है आँधियों का , भूलकर इस ओर आयें
दम नहीं है नागफ़णियों का जरा भी सर उठायें
आपका हर इक इशारा रुख हवा का मोड़ता है
आपका साहस रगों में खून बनकर दौड़ता है
आपकी हर सीख देखो सत्य का ध्वज बन चुकी है
आपने जो आग बोई आज सूरज बन चुकी है
आंसुओं को पोंछ देती आपकी वो खिलखिलाहट
कौन भूलेगा बताओ आपकी वो जगमगाहट
इस उजाले को हमेशा याद रक्खेगा ज़माना
मौत के बस में नहीं है रौशनी को मर पाना
आप हो सांसें हमारी , हम सभी की जिंदगी हो
तुम यहीं हो ,तुम यहीं हो , तुम यहीं हो, ...........
डॉ .उदय 'मणि 'कौशिक
Saturday, July 19, 2008
है अभी तक रौशनी मद्धम ,हमारे हाथ में ........( ग़ज़ल )

आज तक भी है वही दम-ख़म हमारे हाथ में
इस जगह पर है अँधेरा , तुम अभी से मत कहो
है अभी तक रौशनी , मद्धम हमारे हाथ में
हम जिधर चाहें वहां पर धूप हो ,बरसात हो
आगया है इस तरह , मौसम हमारे हाथ में
हौसला है आज भी जो ,फाड़ दे आकाश को
साँस बेशक रह गयी है , कम हमारे हाथ में
मर रहे हैं आज वो कैसे 'उदय' के नाम पर
आ गए पूरी तरह हम-दम , हमारे हाथ में
आपकी सक्रिय प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में
डॉ उदय 'मणि' कौशिक
Friday, July 18, 2008
Tuesday, July 15, 2008
मैं समय हूँ.. (जनाकवि स्व विपिन 'मणि' की प्रतिनिधि कविता )
मैं समय हूँ कह रहा हूँ आँख खोलो
पग उठाओ और मेरे साथ हो लो
आज धरती पर तुम्हारी भूख के पौधे उगे हैं
लालची बादल अनेकों पर्वतों पे आ झुके हैं
आदमी की आँख मैं अब झांकती हैं नागफनियाँ
झर गयी निष्प्राण होकर देह की मासूम कलियाँ
कागजों से भर गयी है बरगदों की हर तिजोरी
घूमती काजल लगा कर आँख में महंगाई गोरी
मैं गगन से झांकता हूँ देख लो पलकें उठाकर
तोड़ दूँगा दर्प सबका एक दिन बिजली गिराकर
दुर्बलों की पीर से आँखें भिगोलो
मैं समय हूँ ,कह रहा आँख खोलो ....
चांदनी को दर्प था आकाश पर छाई हुई थी
झील के खामोश तट को नींद सी आयी हुई थी
फूल सब महके हुए थे क्यारियाँ चहकी हुई थी
शुक - पपीहा के स्वरों से डालियाँ बहकी हुई थी
धूल की लपटें लिए फ़िर एक दिन तूफ़ान आया
मौत का चेहरा भयानक त्रासदी को साथ लाया
पड़ गयी किरचें अनेकों साफ़ सुथरे दर्पणों पर
नाम मेरा ही लिखा था धुप से झुलसे वनों पर
मैल धोखे का ह्रदय से आज धोलो
मैं समय हूँ कह रहा हूँ आँख खोलो ...
वृक्ष के पत्ते हरे थे आज सब पीले हुए हैं
फूल थे सारे गुलाबी आज सब नीले हुए हैं
मैं समय हूँ देख लो तुम आज ये मेरा तमाशा
फ़ैल जायेगा अभी आकाश में कला धुआं सा
सोचता हूँ तुम घुटन में साँस कैसे ले सकोगे
कांपते हैं पांव मेरा साथ कैसे दे सकोगे
मील के पत्थर अनेकों देखते हैं राह मेरी
है अभी पुरुषार्थ तुममें थम लो तुम बांह मेरी
साहसी हो , वीरता के शब्द बोलो
मैं समय हूँ ,कह रहा हूँ आँख खोलो
पग उठाओ और मेरे साथ हो लो
जनकवि स्व श्री विपिन 'मणि'
Monday, July 14, 2008
पूजनीय पिता जी की पुण्यस्मृति में ....

उठा कर हाथ हर कोई यही फरियाद करता है
दुबारा भेज उसको जो चमन आबाद करता है
ज़माने के लिए तुमने लगा दी जान की बाजी
तभी तो आज तक तुमको जमाना याद करता है ....
हमेशा वक्त को अपने इशारों पर नचाया था
लगा आवाज शब्दों से ज़माने को जगाया था
हवाओं-आँधियों ,तूफ़ान में चलते रहे हरदम
न जाने आपको चलना भला किसने सिखाया था ....
यहाँ पे मौसमों का आज वो उत्पात थोडी है
यहाँ पे आजकल उतनी कठिन बरसात थोडी है
किसी का दम नहीं है जो मुकाबिल चाल को रक्खे
'समय' के नाम से जीना हँसी की बात थोडी है ....
बगावत जब जरूरी हो ,नहीं डरना बगावत से
समय का सामना करना बहुत पुरजोर ताकत से
हमेशा फर्ज को तुमने उसूलों सा निभाया था
तभी तो वक्त लेता है तुम्हारा नाम इज्जत से.....
डॉ उदय 'मणि'कौशिक
चुनौती दे रहा हूँ मैं ....(ग़ज़ल ..)
नशा बनकर जमाने पर ,कभी वो छा नहीं सकते
बहुत डरपोक हो सचमुच ,तुम्हारा हौसला कम है
किसी भी हाल मैं तुम मंजिलों को पा नहीं सकते
उसे सबकुछ पता है , कौन कैसे याद करता है
किसी छापे -तिलक से तुम उसे बहला नहीं सकते
सुरों की भूलकर इनसे कभी उम्मीद मत करना
समंदर चीख सकते हैं ,समंदर गा नहीं सकते
चुनौती दे रहा हूँ मैं यहाँ के सूरमाओं को
जहाँ पे आ गया हूँ मैं वहां तुम आ नहीं सकते .....
डॉ उदय ' मणि' कौशिक
मुक्तक..
हवाओं आँधियों से मैं निडर इतना नहीं होता
तुम्हारे साथ के दम पे यहाँ तक आ गया वरना
किसी भी हाल में मुझसे सफर इतना नहीं होता
डॉ उदय 'मणि'कौशिक
Sunday, July 13, 2008
मुक्तक ...
इस दिल से जब भी निकलेगी ग़ज़ल प्यार की निकलेगी
चाहे जितनी नफरत डालो कितना भी बारूद भरो
इस मिट्टी से जब निकलेगी फसल प्यार की निकलेगी
Saturday, July 12, 2008
बहुत बदलाव आएगा ...( ग़ज़ल )
बहलना छोड़ देते हम अगर झूठे दिलासे से
तमाशा कह रहे हो तो ,तमाशा ही सही लेकिन
बहुत बदलाव आएगा , हमारे इस तमाशे से
अभी हंस लो हमें छुटपुट पटाखे सा बताकर तुम
तुम्हारी धज्जियाँ उड़ जाएँगी इनके धमाके से
हमें झोंका समझते हो अभी तक आपने शायद
किले गिरते नहीं देखे , हवाओं के तमाचे से ..........
डॉ उदय 'मणि' कौशिक
94142 - 60806
Friday, July 11, 2008
मुक्तक ......
अगर ये फूल है तो फ़िर महकता क्यों नहीं बोलो
हमारी ही तरह खुदको अगर इन्सान कहता है
किसी का दिल दुखाने में हिचकता क्यों नहीं बोलो
डॉ उदय 'मणि' कौशिक
मुक्तक .....
अगर तू दे सके , मेरी दुआओं में असर दे दे
जिसे जो चाहिए उसको अता कर शौक से लेकिन
मुझे रोते हुए दिल को हँसाने का हुनर दे दे ..........
डॉ उदय 'मणि' कौशिक
मुक्तक ......
किसी भी हाल में सच बोलने का हौसला रक्खो
अँधेरे की शिकायत मत करो या तो जरा सी भी
नहीं तो खिड़कियों को खोलने का हौसला रक्खो
डॉ , उदय 'मणि ' कौशिक
Wednesday, July 9, 2008
अपने बारे में ...
बहुत इज्जत से नवाजा है ज़माने ने हमें
कुछ न कुछ देंगे नया हम भी ज़माने के लिए ....
जनकवि स्व श्री विपिन 'मणि'