इस धरा की गोद में नभ के सितारे भर सकें
दो हमें सामर्थ्य इतना पार सागर कर सकें
ना डरें हम आँधियों से ,ना डरें तूफ़ान से
कश्तियाँ चलती रहें हरदम हमारी शान से
जो कठिन हालात में भी अनवरत जलता रहे
हर किसी के द्वार पे हम दीप ऐसा धर सकें
दो हमें सामर्थ्य इतना पर सागर कर सकें ......
हम मिटा पायें ह्रदय से हर घृणा को ,द्वेष को
हम बदल पायें जरा सा आज के परिवेश को
कर सकें हम स्नेह का संचार अन्तिम श्वास तक
जो दिखे पीड़ित -दुखित ,दुःख - दर्द उसका हर सकें
इस धारा की गोद में नभ के सितारे भर सकें
दो हमें सामर्थ्य इतना पर सागर कर सकें .....
डॉ उदय 'मणि' कौशिक
नव वर्ष २०२४
1 year ago
2 comments:
जोशीली रचना करने में आपका जवाब नहीं, कमाल!
bas itna kahungi ki aisa hi ho.....bahut achha likhte hain aap
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